मै भूल जाऊं तुम्हे,अब यही मुनासिब है मगर भूलना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ कि तुम तो फ़िर हकीकत हो कोई ख्वाब नहीं वहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ "कमबख्त" भुला सका ना ये वो सिलसिला जो था ही नहीं वो इक ख्याल जो आवाज़ तक गया ही नहीं वो एक बात जो मैं कह नहीं सका तुमसे वो एक रब्त जो हम में कभी रहा ही नहीं मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही नहीं अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ कि तुम तो फ़िर भी हक़ीक़त हो कोई ख्वाब नहीं # जगजीत सिंघ

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