मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा, जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यों नहीं जाता? वो नाम जो बरसों से ना चेहरा ना बदन है, वो ख्वाब अगर है तो बिखर क्यों नहीं जाता?


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